आ गये रिश्तों का हम रंगीं दुशाला छोड़कर,
अब कहां जाएंगे हम तेरा शिवाला छोड़कर।
कहकहे, सुख-चैन, सपने, नींद, आज़ादी के दिन,
क्या मिलेंगे ये तुम्हें सच का उजाला छोड़कर।
शहर में दिन-रात रोटी के लिए तरसा है वो,
जो कि गुस्से में गया घर से निवाला छोड़कर।
हम हैं उस दुनिया के वासी, हम वहीं पर जाएंगे,
एक दिन रंगीनियां, ये रंगशाला छोड़कर।
हाथ काटे, पांव काटे, फिर कहा- आज़ाद हो,
तुम कहीं जाओ मगर सांसों की माला छोड़कर।
एक मुद्दत बाद देखा आइना तो यूं लगा-
उम्र मकड़ी-सी गई चेहरे पे जाला छोड़कर।
घुलते-घुलते याद में उसकी मुझे ऐसा लगा,
मुझको खुशबू ने छुआ फूलों का पाला छोड़कर।
– चेतन आनंद
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