याद आते हैं हमें जब चंद चेहरे देरतक
हम उतर जाते हैं गहरे और गहरे देरतक।
चांदनी आंगन में टहली भी तो दो पल के लिये
धूप के साये अगर आये तो ठहरे देरतक।
बंदिशें दलदल पे मुमकिन ही नहीं जो लग सकें
रेत की ही प्यास पर लगते हैं पहरे देरतक।
मैं हूं दरिया और खुशी है मैं किसी का हो गया
ये समन्दर कब हुआ किसका जो लहरे देरतक।
ये हक़ीक़त है यहां मेरी कहानी बैठकर
ग़ौर से सुनते रहे कल चंद बहरे देरतक।
– चेतन आनंद
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