डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा- ‘उरतृप्त’
ऊपर वाला इंसान को धरती के किसी भी कोने में चाहे जैसे भेजता हो, लेकिन भारत में भेजकर वह खुद कन यूज हो जाता है। यहाँ इंसान की आँखें खुलने से पहले ही उसका धर्म, जात-पात, वर्ग, प्रांत, भाषा फिक्स्ड हो जाता है। जब आया है तो यहाँ के रंगेमिजाज के हिसाब चलना भी तो होगा। सो, जो भी हो चलते जाइए। महंगाई के ऊबड़-खाबड़ पठार, खून से भरी घाटियाँ, मानवता की विलुप्तता के मंजर दिखाते मैदान सब कुछ पार करते हुए जाना है। जी हाँ बहुत दूर जाना है। इस दुर्गम राह में सूर्य का कहीं अता-पता नहीं है। पल भर सुस्ताने के लिए एक पेड़ की छांह तक दूभर है। अविश्वास के बादलों से ढके आसमान में आशा की किरण का कहीं नामोंनिशान नहीं है। पैरों में महंगाई के छाले हैं तो क्या हुआ? आगे बढ़ते ही जाना है।
सुना है कहीं किसी दुनिया में जीवन भर की पदयात्रा के बाद एक आशा का इंद्रधनुष दिखायी देता है। अच्छे दिन और अच्छी रात दोनों सुनने में अच्छे लगते हैं। अच्छे लोगों की अच्छाई अच्छे दिन और रात की आस में संघर्षों के संधि स्थल पर छटपटाती दिखायी देती है। अच्छे लोगों के पैर बड़े जिद्दी होते हैं। इसीलिए इन पैरों को झूठा दिलासा ही सही उसे चलने का कुछ बहाना तो देना तो होगा! पतझड़ के बीच जीवन का रास्ता तलाशना है। कुछ जगहों पर बीहड़ जंगल सी जमीन में रास्ता बनाना है। कहीं-कहीं पत्थरों को चीरकर आगे बढऩा है। पाठशाला जाने वाली भोली सूरत वाली लड़की के पसीने से तर वाले हाथ में त ती और खडिय़ाँ हैं। वह भी इसी राह चली जा रही है। वह अपने उज्ज्वल भविष्य के सपनों के टुकड़े चुनकर लाना चाहती है।
जिंदगी खुद में सफर है। सफर में कोई इस तरफ तो कोई उस तरह है। इसलिए चलना आसान नहीं है। चलने के लिए दूर-दूर तक देखने वाली आँखों की जरूरत पड़ती है। चलने वाले पैरों को जकडऩे के लिए रेती के टीले जहाँ-तहाँ मुँह बाए खड़े हैं। वे तु हें आगे बढऩे से रोकना चाहते हैं। सूर्योंदय की जमीन जमीदोंज होती जा रही है। सूर्य की लालिमा थके, कुचले, चोटिल पैरों की रक्त धारा की घूँट पीकर चमकने के लिए तरस रही है। जो रास्ता तय हो चुका है वह हर्षोत्सव सा प्रतीत हो रहा है। होंठों के आवरण पर कंपन नहीं साहस के हस्ताक्षर चाहिए। इंसान बुलंदी के शिखर पर पहुँचने का प्रयास कर रहा है। पैरों को कभी उसने पैर समझा ही नहीं। वे पैर नहीं पर हैं उसके लिए। अब जरूरत हाथों को पर बनाने की है। इंसान को उडऩे के लिए दो नहीं चार पर चाहिए। चार परों वाला पंछी कहीं तो होगा। शायद हम में, तुम में या फिर सबमें…..जी हाँ जरूर होगा चार परों वाला पंछी।
(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, अथवा सच्चाई के प्रति खास रपट उत्तरदायी नहीं है।)