जां निसार अख्तर की गजल: ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से ...
ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से ...
फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो ...
ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ ...
हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं ...
इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार सभी ने ओढ़ रखे ...
ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह अभी तो मैं उसे पहचान भी न ...
लम्हा-लम्हा तिरी यादें जो चमक उठती हैं ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है बन्द आँखों में कई ताजमहल जलते ...
वो आँख अभी दिल की कहाँ बात करे है कमबख़्त मिले है तो सवालात करे है वो लोग जो दीवाना-ए-आदाब-ए-वफ़ा थे इस दौर में तू उनकी कहाँ बात करे है ...
उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे ज़िन्दगी राम का बनबास लगे तू कि बहती हुई नदिया के समान तुझको देखूँ तो मुझे प्यास लगे फिर भी छूना उसे आसान नहीं इतनी ...
ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है अपने-अपने हौसले की बात है किस अक़ीदे की दुहाई दीजिए हर अक़ीदा आज बेऔक़ात है क्या पता पहुँचेंगे कब मंज़िल तलक घटते-बढ़ते फ़ासले का ...
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